ख़ाक
Haven't written in a while... Wrote this today in response to Bani's query about my research... It must be noted that it was her that started the conversation that led to the first stanza and she further inspired me to write the rest of the poem. She is my muse and this would not have been possible without her :-)
ख़ाक
(आदित्य)
बातें ही तो बनाना आता है,
वीद्यार्थी हूँ मैं,
बस और मुझे ख़ाक आता है
यहाँ आके फँस गया हूँ,
न पढने में मज़ा आता है,
और बिन पढ़े न चैन आता है
मेरी मिन्नतों पे हँसता होगा खुदा,
कहता होगा बेवक़ूफ़,
दुआओं से भी कभी रिजल्ट आता है?
ठीक फरमाया मैं कहता हूँ,
पर हुज़ूर,
बिना मिन्नतों के भी ख़ाक रिजल्ट आता है !
हँसते हैं लोग मुझपे,
और मेरी हालत पे,
मुझे खुद रोना आता है.
कमसकम आपकी हंसी के काम आ गया,
वरना विद्यार्थी हूँ,
विद्यार्थी क्या ख़ाक काम आता है!